
प्रणाम श्रीकृष्ण
कभी आपने गीता में कृष्ण की आवाज़ को ध्यान से सुना हो तो वे यदा यदा हि
धर्म-स्यग्लानिर्भवति की बात करते हैं। धर्म की ग्लानि की। ग्लानि अपनी गिरेबान में झांकने
पर होती है। उसकी नोक भीतर की ओर मुड़ी रहती है। निष्ठा हो तो सावित्री की तरह जिसने कहा
थाः धर्मार्जने सुरश्रेष्ठ कुतो ग्लानि क्लमस्तथा। कि धर्म के अर्जन में कौनसी ग्लानि और
कैसा कष्ट। लेकिन धर्मार्जन किसमें है, कई बार यह आत्म-समीक्षा कर ही लेना चाहिए। जो लोग
रुद्र के प्रकट होने पर भाग खड़े हों, वे रुद्राक्ष के लिए बड़े पगलाये दिखते हैं। रुद्र को
देखने की आँख ही रुद्राक्ष है।
यूं तो लूथर के समय चर्च के प्रिंट संस्करण के टिकट भी बेचा करते थे। मुफ़्तख़ोरी सिखाने
वाले घोषणापत्र और योजनाएँ यदि गम्भीर हैं, तो ये मुफ़्त वितरण भी अध्यात्म में राजनीति की
कॉपी का कारण ही हैं। इसलिए लक्ष्य से भटक जाना ज्ञान का भाव पैदा करता है। स्वयं के तप के
बिना उद्धार नहीं है। लेकिन यदि क्रांति ही करनी हो तो हमारा ऐतिहासिक अनुभव यह है कि वह
रोटी और कपड़ा गाँव पहुँचाकर हो जाती है।"